Dreams

Wednesday, June 2, 2010

अभय ! Copyright ©


बस एक बात है आजकल

मानुष बहुत डरता है

अपने उत्तर्दाइत्व को

दूसरों के सर रख के

आगे बढ़ता है

खड़े कर लेता हाथ अपने

क्यूँकी आलोचना से डरता है

और भयभीत चाल से आगे बढ़ता

फिर भी खोखली जीत का दम भरता है

इस खोखली जीत का सेहरा पहना है

सिर्फ वो जानते हैं

अनदेखा कर के इस सत्य को

जीवन को किस्मत की रेखा मानते हैं

लेकिन सब हैं भयभीत

सहमे, डरे रहना हो गयी

है इस जग की रीत

कब आएगा वो दिन

जब सारे मृदंग बाजें

धुन में और हो निर्भयता की लय

कब होगा मानव डर से अजय

और कब बनेगा

अभय?


हार का डर

नपुंसकता का भय

प्रसिद्धि न मिलने

और किस्मत से शह

खोखली इज्ज़त खोने का डर

परीक्षा से डर

उसके परिणाम से उससे भी ज्यादा भय

अपने आपको सिद्ध करने का डर

गरीबी का भय

कोई कहता तू न होगा अमर

कोई कहता भगवान् से तो डर

डर डर के जी रहे सब

बिना वजह रहे परिस्थितियों से दब

कैसे चलेगा जब साँसे भयबीत हों

होंट कंपकपा रहे और हौसले

सीमित हो

कैसे कदम बढ़ेंगे जब

बंधे हो पाँव इस डर की बेड़ियों से

कैसे विकास का परचम लहराए

जब जी रहे हों हम कैदियों से

तोड़ यह सब, छोड़ यह सब

पा ले इस पे विजय

सर ऊंचा कर, छाती चौड़ी

हो जा अभय!


ऐसे न डर कि जीना दूभर हो जाए

ऐसे हो जा कि डर भी तुझसे डर थर थर कम्प्कपाये

इस डर को जितना दूध पिलाओगे

उतना ही सर्प सा यह फन्फनायेगा

बने बनाये काम को

पल में बहा ले जाएगा

इस समस्या का सिर्फ एक निवारण

मन पक्का कर

निर्भीकता का दें उदाहरण

कुछ करना जीवन में है

कुछ पाने की यदि चाह हो

तो निकाल फेंको इस डर को

और करलो आँखे बंद और कहदो

मैं निडर हूँ

खड़ा इधर हूँ

कर लो जो करना है

कुछ भी हो जाए यदि

अब मुझे नहीं डरना है”

आगे बढ़ने का है अभी समय

मैं हूँ निडर, मैं हूँ निर्भीक

मैं हूँ अभय

मैं हूँ अभय

मैं हूँ अभय!

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