Dreams

Saturday, July 10, 2010

क्यूँ .... बोर हो गए ? Copyright ©


कविताओं से मेरी बोर हो गए?

उम्मीद से मेरी बोर हो गए?

आंसुओं से मेरे बोर हो गए?

विश्वास से मेरे बोर हो गए?


शैली से मेरी बोर हो गए?

तीन अनुच्छेद से बोर हो गए?

तो इस बार कुछ नया सुनाता हूँ

थोडा सा परिवर्तन लाता हूँ!


जो पंक्तियाँ कुछ समय पहले

वाह वाह लूटती थीं

आज वो मजाक बन चली हैं

ताली तो क्या ही मिलती

भूला हुआ राग़ बन चुकी हैं


पाठक तू क्या जाने

क्या उथल पुथल है मेरे मन में

क्या उधेड़ बुन है

कैसी आग लगी है मन में


कविता अभी तक सारी

उम्मीद दिलाती थी

तेरे मेरे काले चेहरे का

दर्पण बन जाती थी

अपने खालीपन को शब्दों

से भर जाती थी

पर भारी भरकम शब्दों से

तुझे नित दिन बोर कर जाती थी


समझ गया मैं आज यह कि

मन के घोड़े जहाँ भी दौडें

उन्हें पाठक की दिलचस्पी के

अनुसार बांधना मेरा काम

शैली बदलूं, ध्यान बदलूं

विचार बदलना मेरा काम


हम सब जाने काला – गोरा

सुनते भी हैं थोडा थोडा

पर कोई हमे दर्पण दिखाए

हमे राह दिखाए

यह कोई नहीं चाहता

इसीलिए तो मैं भी वो ही बोलूं

जो सबको है सुहाता


परन्तु याद रहे हे

पाठक देव

मैं चाहे मूक हो जाऊं

शैली बदलूं या फिर रुक जाऊं

दर्पण लिए मैं खड़ा हूँ

तुमसे पहले खुद को

बदल रहा हूँ


पर आवलोकन की अभी भी

है सरगर्मी

नए विचारों से हूँ सराबोर

वाह वाह चाहे न तुम करना

आज बस न हो जाना बोर

आज बस न हो जाना बोर!

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