Dreams

Saturday, August 7, 2010

खुल कर बोलो ! Copyright ©


आज न जाने क्या हो गया

न जाने मानुष क्यूँ सो गया

किस से है भयभीत आज विवेक

और आत्मा का चिराग न जाने कहा खो गया

सब चुप हैं

आत्मा मूक है

डरे, सहमे हैं हम सब

न जाने यह कौन सा रूप है

आँखें भी बंद हैं

चिंतन भी रुक गया

रूह भयभीत है

और भीतर का स्पंदन

बहार आने से चूक गया

ज्ञान के सागर से जो सींचा जाता था मन

आज वो मुद्रा की गर्मी से सूख गया

संसार स्थायी हो चला

और मानुष मृत सा भ्रमण कर रहा

जो कभी चिल्लाया करता था

व्यक्त करता था

वो भी चुप हो गया



कहाँ से आएगी क्रांति

कहाँ से आएगा विश्वास

जब बोलने से सब डरते हैं

बोलने का प्रयास भी नहीं करते हैं

चाहे शव गिरे हों हर ओर

या नेताओं के भाषण का हो शोर

त्राहि त्राहि मची हर ओर

और लहू से पुती हो हर भोर

चाहे आत्म सम्मान बिक चुका हो

और मन थक चुका हो

चाहे लंगड़े इतिहास पे

अधनंगे भविष्य की बैसाखी हो

चाहे अक्षमता की काया

भौतिक वैभव की चादर से ढाकी हो

परन्तु हम नहीं बोलेंगे

मूह नहीं खोलेंगे

चुप रहने के सारे सुख भोगेंगे

“मौन” का दुरूपयोग करेंगे



खुल कर बोलो

कुंठा हो, भय हो

द्वेष हो , परेशानी हो

जकड़े होने का आभास हो

या फिर आरक्षण की जकड में

व्यर्थ जा रही जवानी हो

खुल कर बोलो

अपने मन में जो है

उसे व्यक्त करना सीखो

अपनी आवाज़ को लोगों तक

पहुंचाना सीखो

चुप रहे तो

जो व्यवस्था है वो

ढेह जायेगी

और सामने बस बिना आत्मा के

धरती एक मृत शरीर सी रह जायेगी.

मूह न मोड़ो

चीजों से

अपने चक्षु खोलो

मन करे तो ढ़ाडे मार मार रोलो

हसो तो खुल कर हसलो

और चाहे समय अनुकूल हो न हो

बस

खुल कर बोलो

खुल कर बोलो

खुल कर बोलो.!

No comments: