Dreams

Sunday, September 26, 2010

शाम Copyright ©


वो शामें क्या थीं

जब पिताजी घर आते थे

कपड़ों में पसीने की खुशबू थी

और आके मुस्कुराते थे

मुझे और बहन को गले लगते थे

और “एक प्याली चाय मिल जायेगी क्या?” कहके

माँ की ओर बाँहें बढाते थे

वो शामें कहाँ गयीं

वो पल कहाँ गए



वो शामें कहाँ गयी जब

हम मित्र मंडली के साथ

धुनी रमा के देर से घर आते थे

और पिताजी “ऊठक बैठक”

फौजी की तरह करवाते थे

और थक जाने पर

गले लगाते थे

जब माँ दूध का गिलास हाथ में थामे

राजा बेटा पुचकारती थी

और जब यार सीटी बजा बजा के

चोरी छुपे घर से निकलने का

इशारा कर जाते थे

वो शामें कहाँ गयी

वो पल कहाँ गए




अब शामें बस एक हाथ में

जाम लिए और एक हाथ में कलम थामे

गुज़र जाती हैं

पुराने लम्हों की बस झलक दिखला जाती हैं

मय गले से उतरती है

और ह्रदय की धड़कन बस कसमसाती है

उम्मीद ही है बस जो

इस भयानक शाम में थोडा

अमृत घोल जाती है

कलम भी दगा दे जाती है

और मय भी अब बस..रुलाती है

वो शामें कहाँ गयी

वो पल कहाँ गए




शाम दर शाम हम वो ही

जाम थामे ,

वो ही कलम स्याही में डुबोये

बैठ जाते हैं

कभी मन ही मन मुस्कुराते हैं

कभी अपने आंसुओं में कलम डुबाते हैं

कभी कविता में दर्द दिखाते हैं

कभी बीती यादों की गाथा गाते हैं

नीरस सी शाम है

बेरंग सा जाम है

शब्द भी अब बस….

अंगडाई लेके सो जाते हैं

वो शामें कहाँ गयी

वो पल कहाँ गए




हम भोर भोर चिलाते रहे

सूरज उगने की राह ताकते रहे

ढलते हुए की चिंता न की

और बस जाम पे जाम घट्काते गए

यह शामें हमने ही बिगाड़ी हैं

यह दर्द हमने ही पाले हैं

जहाँ खुशियाँ होनी चाहिए थी

वहां बस गम के प्याले हैं

और हम कहते हैं

वो शामें कहाँ गयी

वो पल कहाँ गए

………..

1 comment:

Amit Kumar said...

Tumhaari baatein dil ko choo jaati hai dost..... just happened to look at ur by accident...... kitni dard aur sachaai hai tumhari kavitaaon mein..........