Dreams

Thursday, April 14, 2011

गिरगिट ! Copyright ©


घृणास्पद रेंगता हुआ जंतु
यह गिरगिट की उपाधि
और मानव?


आज तो मैं भी रेंगा
देखूं क्या होता है
रंग बदले, बदले दल
देखूं क्या होता है
वाह वाही मिली और ठोकी पीठ
मैं नित दल बदलता प्राणी
यह मेरा गीत



गिरगिट के रंगों को बदलते देख
सोचा क्यूँ यह ऐसा करता
हरी दूब और सूखी घास
में सरपट कैसे बदलता
इस जंगल राज में गिरगिट
बदले रंग रूप जीवन बचाने
पर मैं तो अपने पाप-पुण्य के बहि खाते को
धोने पहुंचा ,पहुंचा गंगा नहाने



गिरगिट बदले रंग तो क्या
हम भी गिरगिट हो जाएँ?
ईमान धर्म को बेच बेच के
आत्मा नीलाम करवाएं?
अरे थूक-चाट के
थाली का बैंगन हो जाएं?
घृणास्पद उपाधि दें गिरगिट को
और स्वयं साधू कहलाएं?



गिरगिट गिरगिट देखे मैंने
और गिरगिट मैं भी हो चला
मानवता तो रही नहीं अब
मैं भी अब रेंग रहा



सब ओर रेंग रहे सब
सर न उठा के कोई चले
कोई चलना चाहे तो भी
जग उन्हें गद्दार घोषित करे
अरे रेंगना ही था तो हमने फिर
रीड की हड्डी क्यूँ मांगी थी
एक पूँछ ही काफी थी
और हममे मानवता क्यूँ डाली थी



विष ही विष बस रहा है देखो
कड़वाहट ही अब पनप रही
खून की नदियाँ बहती है अब
जहाँ कभी अमृत धारा थी बह रही



रंग बदलना है तो क्यूँ न
सुनेहरा रंग हम खुद पर मढें
क्यूँ न जग का विष पी जाएँ
क्यूँ न नीलकंठ बनें
क्यूँ इस विष को फैलाएं हम
क्यूँ न खुद में फिरसे रीढ़ की हड्डी सीयें
सर उठा कर जीना सीखें
क्यूँ न बुद्ध बनें



रेंगो मत अब उठ खड़े हो
करो देवों को अर्घ्य दान
सर्प रुपी जिव्हा को
करवाओ मिश्री का पान
रंग बदलने में न करो
स्वयं की शक्ति नष्ट
मस्तिष्क के द्वार खोलो
उमंगो को न करो सीमित
गरुड़ बनके उड़ना सीखो
मारो अन्दर का यह गिरगिट
मारो अन्दर का यह गिरगिट
मारो अन्दर का यह गिरगिट!!!!

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