Dreams

Monday, April 25, 2011

सरफिरे तख़्त !! Copyright ©


सूर्य उदय हुआ और पहली किरण
देखकर सांस भरी
और पूरी श्रृष्टि को अन्दर समां गया
हाथों में लहू था मेरे फिर भी
मैं उनको स्वच्छ बना गया
यह तो होना ही था
तख़्त हो गिरने ही थे
ताज तो उछलने ही थे
लहू तो बहना ही था
विजयी तो होना ही था




भय से कांप उठी थी पीठ
जब हमला बोल गयी थी रीत
जब ललकार रहा था भाग्य
और चीख रही थी हार
तुझे हराउंगी बार बार
जब कौलाहल था मन में और
आत्मविश्वास डगमगा उठा
तब कानो में बोला "स्व"
उठ खड़े हो घबरा मत
और कर दे अपना चौड़ा सीना
बना अपना रूप विराट
सलामी तुझे सब एक दिन देंगे
तख़्त तो सब गिरेंगे
ताज तो सब उछलेंगे



रात थी काली और सरसरा रही थी हवाएं
मेरे शंखनाध के पीछे था विश्वास
थी सबकी दुआएँ
भृकुटी तानी थी अब और अश्वा को दे दी लगाम
अब चढ़ने की बारी थी , अब था न कोई विश्राम
भूगोल बदलना था अब, इतिहास रच आना था
विजी विश्व ध्वज को अपने रथ पे लहराना था
नरसंघार भी करना था
और भय भी मिटाना था
तानाशाहों के तख्तों को अब गिराना था
कई स्वर्ण ताजो को अब सूली पे चढ़ाना था



जब घूमी तलवार , विश्वास के वेग से
तब थर्रा गयी थी भूमि और आकाश चिल्ला उठा
सिंघासन हिल उठे और यमराज कंपकपा उठा
भेद रहे थे बाण और हर भाला लहुलुहान था
पर माथे का लहू केवल पसीने सामान था
तख़्त हिलाना था भाग्य का
ताज मौत का उछालना था
तो धरती माँ को तो लहू का बोझ उठाना ही था
घूमी तलवार उसकी ऐसे की
कलमे सरों का भण्डार था
लहू की धारा थी और शवों का गान था



तख़्त तो गिरने ही थे
ताज तो उछलने ही थे
जब मृत्यु पे विजय पाने का खून सवार था
जब भाग्य ने कुरेद कुरेद के मानव
को दिया दानव करार था
अब न रुकना था प्रहार जब तक
यह हार न मान लें
जब तक इनकी तानाशाही ख़त्म न हो
जब तक यह हथियार न डाल दें



अब खड़ा चांदनी से रौशन उस शिखर पे
मैं इस भयानक रात का मंज़र देख रहा
और आने वाले सुनहरे सूर्य की हलकी गरमी
अभी से सेक रहा
आयेंगे ऐसे युद्ध और भी यकीन है मुझे
सर कलमे जायेंगे और भी यकीन है मुझे
पर वो सर जो तानाशाही ताज पेहेनते हैं
उन्हें तो काटना ही होगा
स्वतंत्र सांस से सबको जीना ही होगा
चाहे मुहीम मैंने छेड़ी हो चाहे हो किसी और ने
इन सरफिरे तख्तों को तो गिरना ही होगा
इन सरफिरे तख्तों को तो गिरना ही होगा
इन सरफिरे तख्तों को तो गिरना ही होगा!

No comments: